राम और उनका नाम एक है !!

ओं श्री वल्लभ गणपति शरणम
ओं श्री अंगाळ परमेश्वरी शरणम
ओं श्री गुरवे शरणम

श्री राम नाम महिमा

सिद्ध पुरुषोँ में अग्रगण्य, भगवान अगस्त्य एवं उन्के अत्यन्त निकट शिष्य श्री भोग ''श्रीराम नाम महिमा'' इस विषय पर, प्रश्नोत्तरीय रूप में संवाद कर रहें हैं। आइए, हम भी सुनकर आनंद लें। यह 'गुरु-शिष्य संवाद रूप ज्ञान प्रचार', अगस्त्य मूल ग्रन्थों का मुख्य अंक माना गया है। स्वयं अगस्त्य, अपने शिष्य भोग की प्रशम्सा में कहते हैं कि, सरल रूप ढंग में दी गयी विषयों को, उसी तरह सरल ही शैली में 'लिखित रूप' भी प्रकट करते है श्री भोग''।
श्री भोग : गुरुदेव! कलियुग में हिन्दुवों में अधिक शैव शाखा के लोग, दुर्लभ श्रीराम नाम महिमा ज्ञाता नहीं, ऐसा क्यों?

श्री अगस्त्य : वह बहुत गलत दृष्टि-कोण है भोग! कई लोग इस गलती - श्री राम नाम केवल वैष्णवों या वैष्णव संप्रदाय अनुगामीयों के लिये ही है - ऐसे गलत समझ पर हैं।

लेकिन, सच तो यह है कि यह मन्त्र तो सभी मानव जाती के 'तारक' है। न केवल यह भूलोक के अलावा सभी अन्य लोक निवासियों जपते नाम ही श्रीराम नाम। जानते हो, ऐसा क्यों?

अति सरल, कहने योग्य नाम। किन्तु, अपार शक्तिशाली शब्द ! इतना महत्व पूर्ण श्री राम नाम न केवल मानव, ऋषियों, ज्ञानियों, सिद्ध पुरुषोँ, बल्कि दैवों भी कहते हैं। भारत वर्ष के अति पवित्र काशी क्षेत्र गंगा तट मणिकर्णिका घाट में देहत्यागते व्यकितयों का कान में स्वयं विश्वेश्वर महादेव श्रीराम तारक मंत्र सुनाकर उन्हें मुक्ति देते हैं। यदि ऐसा पवित्र नाम जिसे शिव जो प्रयोग करते हैं, तो यह नाम कितना प्रभावशाली एवं अति उत्तम श्रेणी के होगा, इस बात पर सभी मानव चिचार करें।

सदगुरु से ही श्रीराम नाम  प्राप्त करें !

श्री भोग : हे गुरुनाथ ! इत्ना श्रेष्ठ श्रीराम नाम जपने को कोई विधि विधान अनिवार्य है?

श्री अगस्त्य : हाँ, निश्चित तौर पर है। श्री राम नाम जपने से पहले, उसे उपदेश के रूप में प्राप्त करने को अनेक तरीके होते है। यद्यपि सिर्फ 'राम, राम' ऐसे स्वयं बोलने में कोई पाबेंदी नहीं, परंतु बुजुर्गों द्वारा श्रीराम नाम प्राप्त करना ही अति उत्तम होगा।

महाशय किसे कहते है?

क्योँ कि, जो व्यक्ति अन्यों को उपदेश के रूप में श्री राम नाम प्रदान करते हैं, वह भी श्रीराम नाम में मग्न होकर, श्रीरामजी के दर्शनीय उन्नत मानव होना चाहिए !

श्री भोग : सदगुरु नाथ ! सामान्य तौर पर आयु में बडों का हम बुजुर्ग कहते है। लेकिन किसे उत्तम महात्मा या महाशय शब्दों से पुकारते है।?

श्री अगस्त्य : केवल आयु के आधार पर किसी व्यक्ति को महानता दी नहीं जाती। उस व्यक्ति की दैविक अनुभव पर ही निश्चित की जा सकेगी। वे कौन है, जानते हो भोग ?

श्री विश्वामित्र, श्री वशिष्ठ, श्री गौतम जैसे महर्षियों, बहुत सारे सिद्धों, दक्षिण भारत के नायनारों एवं आझवारों जैसे भक्तों, योगियों, ज्ञानीगण, जिन्होंने भगवान दर्शन की हों, एवं महाशयों या महात्मावों जो सदा सर्वदा दैविक सेवा में ही जुढे रहें - ऐसे लोग ही उत्तम महाशय या महात्मा कहलाते है। अन्य सभी साधारण मानव ही होते है।
श्री भोग : श्री राम नाम महिमा सुनने को अति आतुर हूँ,  गुरुदेव। आप ही कृपा करें।

श्री अगस्त्य : हाँ प्रिय भोग ! कलियुग में जनमे व्यक्तियों को अपने अपने गुणों के आधार पर सामान्यथ: चार तरह विभाजन की जीती है। वे इस प्रकार : चन्दन, गाय, मयूर एवं बिच्छू !

श्री भोग : गुरुदेव ! आज तक किसी ने न सुनी हुई एक विषय जिसे विस्तार से कृपया, अनुग्रह करें।

चन्दन कुंदा तरह के सज्जन

श्री अगस्त्य : यह प्रथम श्रेणी के मानव आचरण में चंदन लकडी के समान हैं। घिस-घिस कर अपने को त्यागते हुए, अन्यों महक एवं शीतलता - जैसे चंदन कुंदा - पहुंचाते हैं, इस तरह के अभिलाशा रहित उत्तम मानव ही चंदन काषठ गुणी होते हैं।

गाय तरह के मानव

भोग : अति अदभुत गुरुदेव ! सुनने मे ही आश्चर्यजनक विषय ! ऐसे मानव कौन है ?

श्री अगस्त्य : मेरे प्रिय भोग ! गाय का मत्लब, केवल एक जानवर ही तो, ऐसे न सोचें। कई अर्थ होते है।

पशु पोशन टंकी मे जितनी पोशाक दी जाती है उतनी नाप मे दूघ भी देगी। यदी पोशाक कम की गयी तो दूध भी कम ही देगी। उसी तरह कुछ व्यक्ति 'जितनी धेन, उतनी ही लेन, उससे अधिक बिल्कुल बंद, ऐसे आधार पर काम करते मानव जन को 'गाय समान' कहते हैं।

मयूर समान व्यक्ति

भोग : मयूर तो सुंदर पक्षी है ! क्या मानव में मयूर गुण के भी होते है ? वह कैसे ?

श्री अगस्त्य : निश्चित रूप से मयूर अति सुंदर पक्षी है। किंतु स्नेह भाव से उसे अपनी सुंदर पंख से एक अंश मांगने से क्या उसे आपको देयगी ? बिल्कुल नहीं ! उसे पकडकर ही पंख मिलेगी न। इसी तरह, सब जानकारी व्यक्तियों के कई तो अनजान बनते हुए काम किये बगैर टालते रहेंगे। जब इन्हें धमकी देने पर ही काम करेंगे। इस श्रेणी के लोग ही मयूर तरह के मानव बनते हैं।

वृश्चिक यानी बिच्छू समान मानव

भोगा : विष जंतु मानी गयी  बिच्छू जैसे मानव कैसे होते हैं, गुरुदेव ?

श्री अगस्त्य : चौथे किस्म के मनुष्य बिच्छू समान होते हैं। सब लोग अच्छी तरह जानते हैं बिच्छू का विशेष गुण तो चाहे उसे भला करें या बुरा करें उसका एक मात्र जवाब केवल टंक मारना। उसी तरह कई मानव अन्यों को कष्ट देना ही अपना उच्चतम धर्म मानकर जीते हैं।

कुछ लोग तो दूसरों पर चुगली करना ही प्रथम कर्तव्य मानकर जीते हैं।  आसपास के लोगों के व्यवहारों को फटककर  उन्के कमियों स्वयं अपने कमियों से अधिक या कम इसे तोलने करते जायेंगे। इस प्रकार के गुणी ही बिच्छू समान मानव।

भोग : सदगुरु ! भूलोक में कई महानों सिद्धों भी जनम लेते हैं। वे किस श्रेणी में शामिल होंगे ?

श्री अगस्त्य : उपर दी गयी चार श्रेणीयों में प्रथम श्रेणी चंदन कुंदा वर्ग में, भोगा। उन्हीं को अवतार पुरुष भी कही गयी है। यद्यपि वे घिसते जायेंगे, फिर भी बिना आतुर रहकर जन सेवा किये जाते हैं।

लेकिन इस तरह के अवतार पुरुष आसानि से भूलोक तक नहीं आते। वे जहाँ भी जन्म लेते हैं, वह जगह भी अति श्रेष्ठ होता है। उस जगह का जल भी पवित्र है। अपने भीतर कई करोडों पापीयों को भी तिरोधान करते हैं, इस तरह के महान अवतार पुरुष - यही दैविक नियति है।

जीवन में दर्शनीय क्षेत्र

भोग : पुण्य भूमि कहलाते भारत वर्ष में तो अनेक अवतार पुरुषोँ जन्मे है, गुरुरदव !

श्री गनेशजी, श्री गुहेश्वर शिवालय, कूहूर

श्री अगस्त्य : हे भोगा ! वह शब्द 'अवतार पुरुष' उसे सुनते ही, हमारी पहली चिंतन सिर्फ श्रीराम ही है न ? श्री राम जन्म भूमि तो कोशल देश है। जहाँ पावन सरयु नदि बहती है। इस देश का राजदानी अयोध्या नगर। सिद्ध पुरुषोँ का कहना है कि इस भूलोक में जन्मे हर व्यक्ति अपने जीवन काल में एक बार ही सही दर्शन करनी ही चाहिये इस पवित्र स्थल को। इसलिये हम सब जिंदगी में एक बार अयोध्या नगर अवश्य दर्शन करें। इसे 'नौकरी काल अंत मे करेंगे' ऐसी सोच से टालिये नहीं। वैसी सोच से संदर्भ छूट जायेगी। इसी कारण से तुरंत ही इस यात्रा करें यही ! सिद्धों का आग्रहभरी सलाह !

इस तरह प्रख्यात अयोध्या मानगर राजदानी बनकर सूर्य वंशी कई मनुएं राज्य परिपालन किये। उन्ही वंश में जन्मे राजावों में दशरथ नामी चक्रवर्ती भी एक थे। उनके ज्येष्ठ पुत्र के रूप में स्वयं श्री नारायण महा विष्णु ने श्री राम नामी अवतरण ली। उन्के ही जीवन-चरित्र श्री रामायण का नाम से प्रख्यात है।

कितने ही बार सुनें फिर भी फीका नही होता महा काव्य श्री रामायण ! अनेक करोडों वर्ष से श्री रामायण हमारे मानवों में गायन एवं कथा के रूप प्रचलित होता चला है तो श्री राम चरित्र कितना महत्व पूर्ण है !

भोगर : क्षमा करें, गुरुदेव ! बीच में इस संदेह उठाने की माफी चाहूंगा। कलियुगी मानव अकसर सवाल करते रहते हैं की बोली गयी कथा बार-बार दुहराने से क्या वह विषय फीका नहीं होगा ? इस रामायण को क्यों पुन: पुन कहते रहते है। ? अन्य किसी और नई कथा क्यों नही कहते ?

श्री अगस्त्य : इस सवाल का जवाब कई तत्वार्थ रीति में दी जा सकेगी। फिर भी सरल तरीके में एक उदाहरण से दूंगा। सुनो।

हमारे घरों में बच्चों को नामकरण में राम इस नाम से उन्हें पुकारना शुरु करते हैं। दिन में बार-बार उन्हें पुकारने से क्या वह फीका लगता है ? उसी बच्चा का नाम क्या हम बदल्ते हैं ? नहीं ! वह क्यों ? जब अपनापन - हमारे बच्चे भावना - होने पर वही नाम कितने ही सालों की बीत जाने पर भी कायम रहता है, फीका नहीं, उसी तरह ही श्रीराम चरित्र एवं श्रीराम नाम भी बार बार कहने सुनने पर भी फीका नहीं लगे राम नाम जितने ही बार श्री रामायण पढी सुनीजाय, हर बार नयी नयी मतलबें, मार्ग दर्शनें एवं विवरणों हमारे सामने उभडते है।  यह अलग श्रेष्ठता को  सभी मानव अनुभव करनी चाहिये।

राज्य परिपालन - सिद्ध अवलोकन में !

तमिल भाषीय सद्गुरु वेंकटरामनजी अपनी ही अनोखी ढंग मे राज्य परिपालन शब्द का तमिल अनुवादीय शब्द ''अरसाट्ची'' को किस खूबी से समझाते हैं इसे देखिये ।

अर + साट्ची यानि हर, शिवजी, को साक्षी मानकर चलाते राज्य परिपालन ही सच्चा राज्य पालन होगा ! चक्रवर्ती दशरथ का राज्य परिपालन इसी खूबी से महत्व माना गया है। ''अरसाट्ची'' तमिल शब्द का सचमुच मतलब यही है।

भोग : गुरुदेव ! कलियुग में महिलायें भी उच्च पदवीयां पाकर परिपालन कर रहे हैं।

श्री अगस्त्य : सामान्यत: महिलायें बोधि वृक्ष कहलाता सर्व श्रेष्ठ वृक्ष अश्वत्थं का प्रदक्षिण किया करते हैं।

ऐसा करने से शरीर मे एक प्रकार का अपूर्व शक्ति - जीव शक्ति - बहता है। यह बहाव से बोधि वृक्ष परिक्रमा महिलावों को परिपूर्ण अनुग्रह प्रदान करता है। इस का फलस्वरूप महिलावों की बातें, सलाहें घरों में, न कि देश में जीत जाएगी। अगस्त्य ग्रंथों में कही गया कि

स्त्री वर्ग को दी गयी अश्वत्थ
फलस्वरूप वे बने गृह रानी !

उसी तरह हर या भगवान को साक्षी मानकर भगवत कृपा से चक्रवर्ती दशरथ राज्य परिपालन कर रहे थे। उत्तम महाराज, किंतु उन्के मन में अपने संतान हीनता एक भारी बोझ बना रहा।

संतान हीनता क्यों ?

भोग : गुरुदेव ! कलियुग में अनेक परिवारों में संतान भाग्य नहीं प्राप्त, इसका क्या कारण है ?

अगस्त्य : वह भोग, श्रेष्ठ सवाल है। कलियुगी मानव इधर एक मुख्य विषय जानना जरूरि है।

इस जन्म में बच्चों को बुरे गालियों देते व्यक्तियां ही अगला जन्म में संतान हीन बनते हैं। बच्चों को 'शनी, घटीले, मूर्ख' इत्यादि बुरी शब्दों से वाग्दंड करते हैं। पहले तो संतान हीन स्थिति में तप करते है, किंतु संतान प्राप्त के तुरंत बाद अकसर उसी बच्चे को गालियां बरसते हैं।

बुजुर्गोँ यह सवाल करते हैं, 'क्या इस तरह गालियां बरसने को ही संतान उत्पन्न किये ? इस तरह के मातृपिता परिवार में अगला जन्म में बगैर बच्चों तरसते हैं। कृपया किसी भी कारण से बच्चों को निंदा नहीं कीजिये।

इस के अलावा संतान हीनता के कारणों अनेक है। कई दोषोँ भी है। जन्म कुन्डली में दोषोँ, वाग्दोष, ऐसे अन्य दोषोँ हो सकता है।  यदि विस्तार करें तो एक बडा पुराण बन जाएगा।

भोग : सद्गुरु ! क्या चाहकर पैदा करते माता पितावों को पोशन काल में उन बच्चोँ को कोसने का भी अधिकार नहीं ?

श्री अगस्त्य : मानव तो 'अपनी इच्छा से ही बच्चे पैदा हुवा करते हैं ' ऐसे गलत सोच में रहते हैं। यह ही बडी मूर्खता है। बडों का कहना है

तुमसे नहीं पैदा हुए बच्चों
ईश आज्ञा से ही
वे जन्मे निमित्त मात्र हो तुम बने !

केवल मानव एक उपकरण बनता है न की वह कर्ता बन सकेगा ! तुम्हारा संबंध देह तक ही सीमित है। अन्यथा, कोई अधिकार नहीं। इसी वास्ते जब बच्चा बडा होता है - अपने पिता का कंदा से उूपर बड जाता है तब वह पिता से सवाल करने लगता है, 'तुम कौन होते हमे पूछने को?' इसी वजह पैदा हुवा बच्चों ही क्यों न हो, फिर भी हर एक इन्सान वे बच्चों केवल शारीरिक सीमा तक ही हमारे माननी चाहिए। उसीके फलस्वरूप अपनी बुढापे में मन शान्तियुक्त जी सकेंगे। अन्यथा पाशबंध अवस्था में पडे रहेंगे।

दशरथ चक्रवर्ती के जीव काल में सकल ऐश्वर्य संपन्न होते हुए भी वे संतान हीनता के कारण तरसते थे। अपने कुल गुरु वशिष्ट के आदेशनुसार अश्वमेध एवं पुत्र कामेष्टि यागों नियमित रूप से संपन्न की। गुरु अनुग्रह के बिना कुछ भी प्राप्त न होगा।

महिलावों का गुरु कौन?

भोग : क्या गुरुदेव, महिलावों को भी गुरु होते है ?

श्री अगस्त्य : हे भोग ! इस जगह पर तुम एक विषय अच्छी तरह जाननी चाहिये। ईश स्रुष्टि में सभीयों को गुरु हैं। शादीसुता पत्नी का गुरु पति ही होता है।  लेकिन गलत मार्ग पर चलता पति हो तो इस जगत के गुरु, जगतगुरु हो तो उन्हें गुरु माननी चाहिए।

श्री अम्बिका, श्री गुहेश्वर शिवालय, कूहूर

भोग : क्या कलियुग मे वैसे जगतगुरुएं जन्मेंगे ?

श्री अगस्त्य : निश्चित रूप से। यद्यपि कलियुग हो फिर भी दैव भरोसी मानवों के मार्ग दर्शन हेतु, ईश्वर निरंतर उत्तम सज्जनों को भूलोक भेजते ही रहेंगे। हमारी परंपरागत कई सदगुरुएं भी उभारकर भरोसेमंद व्यक्तियों का मार्ग दर्शन किया करेंगे।  इसलिए मनोधैर्य मत खोयिये।

भोग : गुरुदेव ! दशरथ महाराज किये यागों के विवरण कृपया अनुग्रह करें।

श्री अगस्त्य : सभी कार्योँ के लिए एक प्रधान चाहिए। उसी तरह यागों का प्रधान के रूप मे महाराज दशरथ ने ऋश्यश्रृंग नामक ऋषि को अपना यागों के मूल कर्ता नियुक्त किया।

ऋश्यश्रृंग एक शक्तिशाली ऋषि थे। वे श्री नरसिम्ह भगवान के अनुग्रह से प्राप्त ज्ञान किरण प्रभाव से ऋषियोँ के अध्यक्ष रहे। इस तरह प्रभाव शाली याग कर्ता याग में जब आहूति प्रदान किये तब याग कुंड में तेजोमयी एक दैविक पात्र निकला !

भोग : सदगुरुदेव ! आज के मानव इस तरह के पुराण संभवों का विवरण सुनाने पर मानने को इनकार करते हैं।

श्री अगस्त्य : इस का कारण व्याख्याता के शब्दों में दृढता का अभाव ही है। कई तो कहेंगे, 'याग कुंड में कहते हैं की तेजोमय पात्र निकला', वह इस तरह या उस तरह दिखा', इस ढँग में विवरण कर बैटते हैं। इस प्रकार संदेह जनक शब्दोँ से नहीं परंतु विश्वास भरी ध्वनि में 'पात्र निकला' ऐसे भरोसे भरी व्याख्या करनी चाहिए।

एक बात स्पष्ट रूप से जान लीजिए। श्री रामायण सत्य घटनावों पूर्ण महा काव्य है। यह संपूर्ण, भारत वर्ष निस्संदेह मानती ऐतिहास है। कोई भी संभव मनो कलिपत अथवा 'बीच मे ठोसी गयी नहीं'।

श्री राम को जरूर दिखा सकते हैं

इसके अलावा, उन्की कृपा भी दिला सक्ते यह कलियुग में ।

निश्चित रूप से भगवान की दर्शन करा सकते कोई कष्ट नहीं। खोजने की जरूरत नहीं। हमारे निकट ही हैं। हम ही अनजान है। आज तक मानव बच्चों की आयुष्होम कराते हैं। क्या यह जूठ है? बिल्कुल नहीं। जो कोई होम, याग, पूजा, आराधना इत्यादि यदि विधि विघान सहित की जाति तब वे असत्य नहीं निकलते। जो कोई भी हो, भगवत आराधनावों को विश्वास सहित विधानों के अनुसार करने से निश्चित ही फलस्वरूपी निकलेगी। कोई संदेह नहीं।

भोग : किंतु कलियुग में विधीवत होमों या यागों को करने योग्य कर्ता कम होते ही अवस्था पर, गुरुदेव ........!

श्री अगस्त्य : यदि विधीवत तरीका चाहते मानव, विधीवत शिक्षण प्राप्त सज्जनों को संमान एवं आदर सहित परामर्श करनी चाहिए। क्या इसे मानव करते हैं? इसके विपरीत तौर पर बगैर विधि विधान की जाती - आपत कालीन अति शीघ्र गति तौर पर - हमने फलाना होम, फलाना पूजा किये, लेकिन फल तो नहीं निकले । इस तरह सभी आराधनों को कोस कर रहते हैं आजकल के मूढ मानव। इसे शिद्धों के भाषा में कहावत :

वेदवित्तों को अवहेलना करती मानवगण ।
हम किये कामों पर सोचते ही अटकते तुम भी
गलती स्वयं के बाद भी कोसते होम यागों की ।।

असलियत तो

विधी हीनता ही गलत।
होम यागों नहीं गलत।
जप में नहीं कोई गलत।
अनुश्ठानों में नहीं कोई गलत।
कोसते मानव ही गलत।

मेरे प्रिय भोग ! इसे बिना भूलकर सभी मानव तक प्रचार करो ।

पिघली देवामृत व्यूह !

ऋश्यश्रृंग मुनि 'सत्पुत्र संतान भाग्य' चाहती दशरथ निमित्त आहूती दी तब दैव अनुग्रहपूर्ण एक तेजोमय आकार के अदभुत स्वर्ण पात्र प्रकटी।  आज जैसे स्वर्ण नहीं, बल्कि अति विचित्र प्रकार की जिसे सिद्धों ने गुप्त रूप में लिख रखे हैं। इस पात्र का विशेषता यह अष्ट सूर्य ज्योति प्रकाशकारी था।

भोगर : वह किस कारण से, गुरुदेव ?

श्री अगस्त्य : क्यों कि वह इस महत्ववान - अष्टाक्षर नामी - ही, भूलोक में अवतरित होने जा रहा है, इस बात का संकेतक था।

उस अष्ट सूर्य पात्र में अपूर्व अमृतमयी खीर प्राप्त हुआ। इस क्षण तक भूलोक में अप्राप्य वह उंदा खीर विधि पूर्व अजित, अमृत सहित मिश्रण की गयी देवामृत खीर ।

भोग : गुरुदेव ! इतनी महत्व का खीर ?

श्री अगस्त्य : सुनो। उस खीर किस तरीके से तैयार की गयी इसे भी बडों कहते हैं।

विष्णु व्यूहों का पूर्ण रहस्यों को एकत्रित किये।  वह केवल भक्ति से ही पिघलेगी। बाद में श्री विष्णु के आयुधों इस अपूर्व पिघली 'विष्णुसार' में स्वयं भी पिघल गये। इस तरह संकलित अमृत ही अग्नि से प्रकट हुआ गन्धर्व से, महाराजा दशरथ विधि पूर्वक, 'संतान भाग्य भिक्षा देही' इस याचना के बाद ही प्राप्त किये। अमृत खीर को दशरथ महाराज अपने तीन महिशीयां - कौशल्या, कैकेयी एवं सुमित्रा देवियों - को भांट दी। इस प्रकार विधियुक्त गर्भ धारण के पश्चात हमारे भगवान अवतरित हुए। जब महाविष्णु श्री राम रूप में प्रकटे, तब डन्के अन्यत्र अंशोँ भी सहप्रकटित हुए। आदिशेष लक्ष्मण रूप में, शँक एवं चक्र भरत एवं शत्रृघ्न रूप धारण किये, अवतरित हुए।

अदभुत श्री राम जनन

भोग : अति सुंदर ! श्री राम जनन में इतने श्रेष्ठतायें ? सुनने में विसमयकारक खूबियां।

श्री अगस्त्य : न केवल इतना ही, भोग । श्री राम जन्म के समय, नक्षत्र सभी अद्भुत। उन्ही 27 नक्षत्रों में से ही वे भी जन्मे किंतु उन्ही के नक्षत्र में जन्मे सभी अन्य मानव क्या वे भी श्री राम समान जीते हैं, इस बात पर व्यक्तियां आत्म विचार करना चाहिए।

श्री राम के जन्म कुंडली में गुरु एवं चंद्र ग्रहों जुडकर अपूर्व, पंच ग्रहों उच्च स्थिति में हें। इस से कई शुभकारी, फल प्राप्ति का संकेत मिलते हैं। जीवन पूर्णत्व, महानता, दैविक पत्नी प्राप्ति करोडों को अन्नदाता, बच्चों के आहार व्यवस्था योजना प्रतिष्ठावान, इत्यादि।

कर्क लग्न, पुनर्वस नक्षत्र, चैत्र माह, शुक्ल पक्ष, नवमी तिधि  में प्रभु श्रीराम भूलोक में अवतार लिये।

अष्टमी नवमी महिमा

भोग : गुरु महराज ! कलियुगी मानव कहते हैं कि अष्टमी एवं नवमी तिधियां अशुभ कारक होते हैँ। इस वास्ते उन दिनों में सामान्य तौर पर कोई भी शुभ कार्य नहीं करनी चाहिए।

श्री अगस्त्य : प्रिय भोग ! श्री कृष्ण परमात्म जन्मे अष्टमी के दिन। श्री राम तो नवमी में। फिर भी मानव यह दानों दिनों को अशुभ कहते हैं। इस का कारण इन तिधियां के महिमा का अज्ञानता ही है। उदाहरण को एक बात सुनाता हूँ।

शुकभ्रहम महर्षि तो 'नवमी तिधि प्रायश्चित्त व्रतों' के बारे में उस दिन में की जाती पूजन के विवरण लिख रखे हैं। उन दिनों की जाती व्रतों को अपार फल प्राप्ति भी लिखे हैं। उस में यह कहा गया है की 'विधिवत अनुष्टित नवमी व्रत का फल, 'कोटि कन्या दान', ऐसे कहा गया है। इस तरह अष्टमी नवमी तिधियां की श्रेष्ठता पर अनेक रहस्यों है। उन्हें गुरुमुख से ही जानना होगा।

श्री राम नाम महिमा

भोग : गुरु महराज ! दक्षिण भारतीय पंचांग काल निर्णय के अनुसार पंचांगों में दी गयी नाम नक्षत्र विधान के अनुसार पुनर्वस नक्षत्र में जन्मे बच्चों के नामकरण संस्कार मे नाम का प्रथम अक्षर के, को, ह, हि इन्ही में से होनी चाहिए। किंतु राम नाम ऐसा रखा गया है। क्या यह टीक है?

श्री गुहेस्वर, कूहूर, लालगुडि

श्री अगस्त्य : भोग ! बीतने दिनों में इस तरह कुतर्क सवालें की जाएगी, इसे दूरदर्शिता से अनुमान करते हुए ही बडों इस का जवाब दे रखे हैं। एक सिद्ध चौपाई इस तरह गहरा  अर्थ देता है।

अष्ठाक्षर पंचाक्षर युक्त बोध तारक
गुणाष्ठ रूपधारणी अष्टाक्षर तारक
संकेत अक्षर में नाचे शुद्ध बोध तारक
राम राम नाम से बीती संकट काल भी

भोग : महादेव ! इस तरह परिभाषीय अर्थ हम जैसों को बिल्कुल समझ नहीं आता। कृपया सरल भाषा में दीजिये।

श्री अगस्त्य : (हंसते हुए) सुन बताता हूँ। कलियुगी मानव भी जानकर फायदा लें। पहले प्रथम पाई का व्याख्या इस प्रकार है। भ्रह्मा तो नारायण अनुग्रहानुसार अपनी सृष्टी कार्य से विमुक्त हो जाते है। उस्के बाद उन्का कोई काम नहीं। लेकिन स्थिति यानि उसे संरक्षण करना तो अति कठिन कार्यभार है। जब कोई अनाथ बन कर आते है उन्हे अपने घर में रखकर बचा सक्ते हैं। लेकिन हमही को जान से मारने की इच्युक्त विरोधी को उस तरह अपने घर में सुरक्षा देंगे? जरा सोचिए। परंतु वह भी करदिखाते अति श्रेष्ठ नाम धारणीय की खोज में लगी ऋषि समूह।  तब वे क्या किये?

पहले यह सोच में लगे की अष्ठाक्षर महा मंत्र से किस अक्षर को लें? 'ओं न मो ना रा य णा य' इन अष्ठाक्षरों से 'रा' इस अक्षर आदि भगवान मतलबी हाने से उसे चुन लिए। उस के पश्चात पंचाक्षर महा मंत्र, नमशिवाय में युक्त 'म' अक्षर जो इस बात का संकेत है की हमारी संपूर्ण आत्म भगवन दास ही है। अब दोनों चुनेगये अक्षरों को जोडिये। संयुक्त द्वि अक्षरीय नाम 'राम' का अर्थ '

'' हम सब आदि भगवान के दासजन ''

उसी कारण हमारे ऋषियों ने महत्वपूर्ण संकेतक राम ऐसा पावन नामकरण चक्रवर्ती दशरथ पुत्र को निर्धारित किये। वह नामी कोई साधारण मानव संतान नहीं।

इस तरह पहली पाई का अर्थ बडों देते हैं।  नारायण एवं नमशिवाय संयुक्त अति मधुर - मिठास भरी - जुडवा आम्र फल ही यह तारक नाम राम।

भोग : हाँ हाँ गुरुदेव ! इन दो अक्षरों में इतनी महत्व। सुनते ही आश्चर्य चकित हो गये।

श्री अगस्त्य : अब चौपाई के दूसरी पाई पर उतरते हैं।

अति मुख्य गुण क्या है?

यह राम नाम तारक अनेक प्रकार के कारोंबारों में जडित गुणों का भी संकेतक है। सभी गुणों के बावजूद उन्मे अति मुख्य, 'अनुग्रह' होता है।
अनुग्रह का माने क्या है? इसे पहले जानना जरूरी है। जिस चीज की कमी या हीनता हो, उसे देने से वह अनुग्रह नहीं मानी जायेगी। वैसे तो हम सब हमारे पास ही होता हुआ एक वस्तु को ही बार-बार भगवान से मांगते रहते हैं। हमें अप्राप्त किसी भी वस्तु को हम नहीं मांगते। क्यों की हम नहीं जानते किस वस्तु हमारे समझ नहीं है। परंतु नास्ति ऐसा एक विषय है। वह क्या है ? जरा सोच कर जवाब दो, भोग।

भोग : गुरु महादेव ! हम में कोई जवाब नहीं प्रकट होता।

श्री अगस्त्य : तुम और कितने समय जीवित रहोगे इसे नहीं जानते। लेकिन इस क्षण तुम जीवित हो। बडों ने कह रखा है कि

तुम नहीं, तुम नहीं
बिन शब्द का एक अर्थ है मेरे बाप
बिना सर्वस्व तुम बिन हो ।

ऐसे गूढ शब्दों में से अर्थ निकालने को ही मानवता को दी गयी बहुमूल्य अंतर मुखीय छठा उपकरण। सदगुरु सहाय से ही ऐसे रहस्यों का ज्ञान उभड आयेगा।

भोग : लेकिन गुरुदेव! आजकल तो उस अंतरमुखीय जांच विचार का विपरीत अर्थ प्रकट हो रहा है ?

श्री अगस्त्य : अच्छी तरह जान लो, भोग ! भगवान को अंतरमुखीय जांच से अनुभव करना ही मानवों की दी गयी दुर्लभ छठा उपकरण। क्यों की हम जांच नहीं करते, इसी वजह से हम 'नहीं नहीं' इस कल्पना को दृढता से अपनाते रहें। किंतु ज्ञान गुरु के अनुग्रह से उस व्यक्ति का ज्ञान 'नहीं नहीं' जैसे नतीजे में नहीं पहुंचकर 'है, है' वैसी नतीजा तक पहुंचने को तीव्र प्रयत्न करेगी। इसके लिए भक्ति मार्ग ही बहुत उपयोगी रहेगी।

आत्म चिंतन का सार ही इस तरह के भगवत अस्थित्व ज्ञान स्वानुभव के जगाना है।  सदगुरु के अनुग्रह से निर्मल भक्तिभाव से  सत्य को असलि ज्ञान दवारा असलिभाव तक पहुंचते मार्ग ही भक्ति मार्ग। इस मार्ग को उपयोगी नाम संकीर्तन एवं नाम जप आराधना उपमार्गो पर आगे जाकर विस्तार व्याख्या करेंगे।

अनुग्रह किसे कहते हैं ?

अनुग्रह एक उत्तम गुण है। प्रथमत: हम श्री राम के अनुग्रह शीलता को समझना अनिवार्य है। नवनाद सिद्धों के ऋषियों के रामायण कही जाती नाडी ग्रंथों में श्रीराम जीवन काल में घटी किंतु अब तक कोई भी अनजाने कई रहस्यों है।

उदाहरण को एक युद्ध कालीन दृष्य को लें।

श्रीलंका पर युद्ध आरंभ की तैयारी में जुठे श्री राम मुख्य नेतावों से आलोचना में विराजमान हैं। सभी वानर सैन्य अपनी कारोबारों में लगे रहे। उस समय वे वानर वीर ने आकाश में घना काली बादल समान पांच असुरों को देखा।

उन्में नेता दिखता असुर तो परम शाँत आकार के रहे, इस वजह से उन्हें वहीं पर पूछ-ताछ की गयी। वे रहे विभीशण। मा सीता का अपहरण कर्ता का छोटा भाई। श्रीराम के प्रति स्नेह भाव से, पहले तो वे वानर उन्हे मार गिराने की सोच मे रहे। लेकिन कपीश सुग्रीव वैसा आदेश नहीं देने के कारण छुप रहे। किंतु श्रीराम को शत्रु रावण का छोटा भाई विभीषण आया संदेश पहुंचाकर आगे कार्यवाई की अपेक्षा में रहे।

श्रीराम आलोचना के रूप में शरणागत व्यक्ति को अपनों में शामिल करें या ना ? इस सवाल को सलाहकारीयों के समझ रखा। सभी वानरों, 'शत्रु का भाई भी शत्रु ही बनता, तदनुसार उन्हें शामिल न करें कह डाले।

वानर भाषा

भोग : केवल मानव ही बोल सक्ते हैं। क्या, गुरुदेव, वानर भी बोल सकते है ?

श्री अगस्त्य : वैसे नहीं, भोग ! इस लोक में सभी तरह के जीवराशीयों बोलते हैं। लेकिन अपनी-अपनी भाषा में। वे सब भाषायेँ मानवों को ना समझ के कारण वे बोलते नहीं ऐसे सोचते हो। यह गलत है। वानरों के भाषा समझने को लगभग आठ साल लगेंगे। गुरु सहाय से ही इस तरह के भाषाएं समझ पाएंगे।

अब पुन: रामायण के प्रवेश करेंगे।

हनुमन छोडकर सभी अन्य वानरों विभीषण को शामिल नहीं करने की निर्णय सुना दी। लेकिन श्रीराम ने सभी असुरों को लाने की आदेश दी। वे सब श्रीराम चरणों में गिरकर नमस्कार किये। देख्ते देख्ते श्रीराम अपनी पहनी रहे वीर माला - युद्ध में पहनी जाती माला - को उतार कर विभीषण गले में डालकर कहें, 'तुम्हें लंका प्रदान करता हूँ'।

इसे देखकर वानरादीश सुग्रीव तो चकित हो कर श्री राम से पूछा, 'हे राम! युद्ध तो शुरू ही नहीं हुआ। इस से पहले ही कह डाले कि लंका देता हूँ, इस का क्या मतलब? श्रीराम ने जवाब में कहा, 'क्यों सुग्रीव तुम्हें अभी तक संदेह?'

'नहीं राम, तुम्हारी वीरता के कोई शँका नहीं, परंतु .........

श्री राम ने कहा, 'परंतु क्या ... कहो, धैर्य हो कर बोलो'

सुग्रीव, 'इसी तरह कल स्वयं रावण तुम्हारे चरणों के आगये तो क्या करेंगे?

तुरंत ही श्रीराम ने कहा, 'अयोध्या तो है प्रदान के लिए'।

इसी का नाम है अनुग्रह !

'मेरे पादुका ही अयोध्या में राज्य भार कर रहे हैं लंका सिर्फ छोटी दीप है। कोशल देश एवं अयोध्या तो विस्तीर्ण में बडा है। उसी को रावण को दे दूंगा।' देखा कितना उत्तम गुण, भोग ! बडों इसी को चौपाई का दूसरा महत्व पूर्ण पद बना रखा।

(आश्चर्य चकित)  भोग : गुरुदेव, श्री राम के अपार करुणा सचमुच आराधनीय है।

आराधनीय महापुरुष कौन?

श्री अगस्त्य : अगला चौपाई पद को लें। इन में भी कई अर्थ जडित है।

भोग : गुरुदेव महाराज ! आप के मुखकमल से आज एक महत्वपूर्ण मार्गदर्शनीय तत्व जिसे हर माता पिता अपनी बच्चों को संबोधन करनी चाहिये  उसे सिखचुके हैं।

इसी समान चौपाई के अंतिम पद में छिपी लक्ष्यार्थ को भी समझाने की कृपा करें।

श्री अगस्त्य : बोध का मतलब भलाई है । सभी जन्मे मानव किसी न किसी तरह कष्ठोँ को अनुभव करते ही रहते हैं। मानव जीवन में कई कठिनाईयां भुगते ही रहते है।

यह राम नाम, जानते हो, क्या करता है ? मानवों के सारी भुगत कष्ठोँ को बोध में बदल देता है। यह ही इस पावन राम नाम महिमा ।

अब चौपाई के चारों पदों के समष्टि गायन रूप में अनुभव करें। श्री राम नाम का सारांश पूर्ण रूप में समझ सकेंगे।

भगवान को अनुभव द्वारा पहचानीये

भोग : सदगुरु महादेव ! जिस तरह राम नाम महिमा का सरल एवं सुंदर जानकारी दी, उसी तरह श्री रामचंद्रजी की रूप महिमा भी अनुग्रह कृपया करें। श्री अगस्त्य : नाम वर्णन के तुरंत बाद आज के मानवों के मन में वह आदशनीय नामी का रूप किस प्रकार का होगा? लंबे कद या वामन रूपी अथवा चित्रों में प्रकटी तरह का होगा? इस तरीके के शँकायें उभरने लगते हैं।

श्री नन्दीश्वर, कूहूर शिवालय

उसे एक उदाहरण के जरिये बता सकते हैं। शहद की किस तरह विवरण की जायेगी? इस बात पर जनता में बहस शुरू हुआ। इसे प्राप्त किये व्यक्ति ने, 'मधुमक्ख़ियाँ की छत्ता से लिया गया चीज ही शहद कही जाती हे' ऐसे बताया।

उसे देखकर दूसरा व्यक्ति बोला, 'शहद अरुण रंग - हलकी लाल रंग - का द्रव है।'

लेकिन तीसरा व्यक्ति जिन्होंने उस शहद को चाट चुके थे, उस ने कही कि शहद तो एक अपूर्व मीटा रुचिदार चीज ऐसा कहा। अस के बाद कहने को कुछ भी नहीं रहा। शहद की रुचि केवल उसे अपनी रसज्ञान से ही जानी जा सकते है क्यों कि उसे शब्दों दवारा समझा नहीं जाएगा।

जिन्होंने कोई मिटास रुचि की जान नहीं ली उन्हें मीटा इस शब्द से उस वस्तु की रुचि को वह व्यक्ति क्या उस मतलब को समझ पायेंगे ?  बिलकुल नहीं। कितने ही शब्दों के बावजूद शहद की रसज्ञान कोई भी व्यक्ति वर्णन नहीं कर सकते। परंतु जरा सी शहद उन्हें रुचि करने की देते ही उन्हें तत्क्षण में रसज्ञान हो जाएगी ।

इस से हमे क्या जानकारी प्राप्त हाती है? जिस विषय को कई शब्दोँ में भी संझाया नहीं पाते उस का ज्ञान झट से हो जाती है, जब एक छोटी सी स्वानुभव द्वारा वह संभव हो पाता है।  एक साधारण शहद की रुचि को ही हम से शब्दों में समझाया नहीं जा सकते क्या श्रीराम के रूप का वर्णन किस तरह संभव होगा? इसीलिए श्रीराम की रूप सौंदर्यता को उसे बातों से नहीं की जा सकेगी ऐसे कहकर समाप्त कर दिया गया है। उसे हर व्यक्ति स्वानुभव से ही समझनी होगी।

भोग : (हिचकिचाते हुए) फिर भी, गुरुदेव ! भविष्य काल के मानवों के मन में श्री रामजी के रूप पर तरह तरह के प्रश्नोँ प्रकट होते ही रहेंगे। उसे समाधान करने को कृपया स्पष्ट करें।

श्री अगस्त्य : मेरे प्रिय भोग! कहता हूँ, सेनो।

आदि नीति तत्व को अंतर्यामी बनकर ही
ज्योति बोध तत्व में सुख से जडित दृष्योपरी
वेद मूल बनकर भी विद्या रूप घरकर भी
निर्मल महामंत्र राम राम नाम ही

यही रही श्री राम रूपी विवरण का सारांश।  

आदि नीति तत्व

भोग : इस चौपाई का अर्थ भी, गुरुदेव, हम जैसों को कृपया समझा दें।

श्री अगस्त्य : इस लोक में जो कोई भी नेक एवं नीति मार्ग पर तत्पर रहते हैं उनके रूपों में श्रीराम रहते हैं। मूंछधारी ही या दाढी धारी उन्के रूप में श्रीराम रहते हैं क्यों कि आदि नीति तत्व को विधीवत शिक्षा देनेवाले श्री राम ही थे।

अत: श्री राम के रूप दिखे ? इसी को, 'आदि नीति तत्व को अंतर्यामी बनकर' शब्दों में कही गयी है। श्री राम ही हमारे अंतरगत आदि नीति तत्व धारण कराते है। अर्थात जो भी आदि नीति तत्व के आधार पर चलते हैं, उन्हें के रूप में - हमारे बीच आज भी - श्री राम रहा करते हैं।

ज्योति तत्व

भोग : चौपाई का पग, 'जयोति बोध तत्व में सुख से जडित दृष्योपरी' का माने क्या, गुरुदेव ?

श्री अगस्त्य : जीवन में अनेक विषयों अनुभव से ही जाननी चाहिए। कानों दवारा कुछ हद तक जान सकते हैं। परंतु सभी अनुभवों के बाद ही पूरी तरह समझ पायेंगे। जैसे केवल अग्नि को देखकर उन्हें समझ नहीं सकेंगे। हाथ जरा सी देकर तुरंत ही जान लेंगे।

बहुत लोग ज्योति जलाकर दीपों दवारा आराधना करते हैं। श्री राम स्वयं दीप ज्योति महिमा कह कर मा सीता को शिक्षा दिये थें।

ज्योतियों कई प्रकार के होते हैं। अनुग्रह ज्योति, महाज्योति, योग ज्योति, ज्ञान ज्योति, आनंद ज्योति, महाकर्म ज्योति इत्यादि।

उन ज्योतियों में हमारे घरों मे जलाते ज्योति को मंगल ज्योति कहते हैं। इसे किस तरह जलानी चाहिए, यह विषय पर बडों ने रिवाज बना रखे हैं। तरह तरह के तेलों से एवं तरह तरह के बत्ती से जलाने दीपों से प्राप्त की जाती फलों एवं महत्वों के विवरण भी दी गयी है।

भोग : गुरुदेव ! मंगल ज्योति हम को क्या अनुग्रह देती है?

अगस्त्य : कमल तना का रूई डालकर दीप जलाने से एक फायदा है। इस में प्रयोग किए जानेवाले तेलों का विविध रूप से फायदे है। तिल का तेल, नारियल का तेल, रेंडी का तेल, तीनों मिश्रित किया तेल, यह एक-एक तेल का विविध विविध प्रकार के फायदे है। ज्योतियों से नियम से जलना चाहिए। पांच मुख, तीन मुख, दो मुख यह सब होता है।

किंतु योगी के समान एकांत रहने वालों को सिर्फ एक मुख का जला सकता है। एक मुख का मतलब एक रूई को जलाकर रखा हुआ दीपक। दूसरे लोग दो मुखवाला, कई मुखवाला ही जला चाहिए। दो मुखवाला दीपक जलाने से शिव-शकित रूपों को, जानकी-राम रूपों को दिखलाता है। और पति पत्नी के रूप में जीने के लिए कहा गया। दो मुख का जलाना ही पत्नी की सुंदरता है।

इसलिए परिवार पलते धरों में हमेशा द्विमुखों का दीप जलानी चाहिए।

प्रेम ज्योति उघलने से...

कई ज्योतियां होते हुए भी सामान्य तौर पर सभी मानवों के भीतर एक प्रेम ज्याति है जिसका उदय होते ही भगवत दर्शन संभव होगा।

जो व्यक्ति पूर्ण रूप से ज्योति धारण की तब ही वे ज्योति तत्व के ज्ञाता कहलाते है। इसे ही हमारे बुजुर्गोँ ने निम्नलिखित शब्दों में कह चुके है।

अण्णामलै अनुग्रह दीप दर्शकोँ ही
हर हर अरुणाचलेश्वर कहते हुए ही
अपनी ही प्रेम ज्योति देते हैं श्री राम भी

इस तरह हमे ज्योति बोध तत्व में सुखासन कराते है श्री राम।

ऐसे श्री राम रूप महिमा है।

वेद मूल ही रामायण

सभी वेद का पूर्ण कर्ता महा विष्णु ही है। वेद को चार भागों में व्यास महा मुनी ने विभाजन किया। इसे बाद में मानवों के मानसिक क्षमतानुसार 1000 शाखाएं, 21 शाखाएं, 9 शाखाएं, 11 शाखाएं इस प्रकार करते रहे हैं।

भोग : महादेव ! आज का कलियुग में कोई भी व्यक्ति पूर्ण रूप से एक भी शाखा अध्ययन नहीं करते। इस परिस्थिति में पूर्ण वेद का अध्ययन कैसे संभव होगा?

श्री अगस्त्य : मेरे प्रिय भोग ! दुखी होने की जरूरत बिलकुल नहीं। वेदों में कही गयी सभी विषयों पर रामायण में उन्का सार मौजूद है। रामायण पाठ अच्ची तरह करने से ही वेदों का सार समझ में आ जायेगा। एक दृष्टि में तो वेद का मूल ही बनता है रामायण। उस रामायण का मुखय पात्र तो श्रीराम ही है ना?

इसी कारण चौपाई के तीसरी पद बडों ने कह रखे है।

भोग : गुरुदेव ! आप ने कहा कि श्री राम आदि, नीति, ज्योति एवं वेद रूपी है। इतनी शक्तियां उन्हें किस कारण प्राप्त हुए?

श्री अगस्त्य : निश्चित रूप से एक नहीं बल्कि अनेक कारणों से कहते हैं, बडों।

1. एक पत्नी, एक कहन, एक धनुष ऐसे व्रतों के थे श्री राम।

2. माता कैकेई तो डन्हें, 'राम तुम वनवास को चलो ऐसा नहीं कहा तुम्हारे पिताजी ने, लेकिन उन्की चाह यही थी' ऐसे कहे। वह बात ही काफी रही। श्री राम वनवास भुगतने चले।

3. अगला श्री विश्वामित्र। वे राजा रहकर ऋषि बदलकर भ्रहम ऋषि तक बने थे। अंड चराचर के निर्माता पदवी तक उन्नति प्राप्त महर्षि थे। उस महर्षि की चाहतानुसार  याग संरक्षण तौर में ताठका को वध किया।

4. श्री राम ही अहल्या शाप विमोचन देकर उन्हें उत्तम नारी - पंच कन्या मंत्र में - स्थान भी प्रदान किया।

5. शिव धनुष जिसे महा पराक्रमी रावण हिला नहीं सके विधिवत भंग कर जानकी माता की पति बनें।

6. गुह को अपनी ही परीवारी के स्थान देकर डन्हें अपने सहोदर बनाये।  भार्ईयां सब सहोदर नहीं होते। केवल परिवारिक संपत्ति के भागी होते हैं। कलियुग में उन्नत दोस्त ही सहोदर बनते हैं। वैसों में थे गुह। गुह ने तो इस से उस तट तक नदी पार करने का पैसा नहीं मांगी। श्री राम भी उन्हें अपनी ही सहोदर मानने की पूर्व उन्की कुल, गोत्र, हैसियत किसी को नहीं देखे । क्या ऐसे सब लोग करेंगे?

7. पक्षी जातियों पर भी अनुकंपित रहे श्री राम । जटायु एक सामान्य पक्षी। क्या उस पक्षी का दाह संस्कार स्वयं भगवान करना जरूरी रहा? यदि उन्हों ने किया तो इस का मतलब उन्की प्रेम, अनुकंपा एवं अनुग्रह को क्या कहें?

8. कई सालों से अपने दर्शन के लिये ही जीवित सबरी मय्या की तप को खतम किया श्रीराम ने। उन्की पावन प्रेम को ही स्वीकार कर डन्की कुल, गोत्र इत्यादि को त्याग कर उनसे दी गयी रुचीली किंतु थूकि बेर फल को बडी आनंद से खाकर सच्ची भक्ति के प्रति उन्को मुक्ति भी प्रदान कर डाले।

वाली वध पर सिद्धों का निर्णय

आगे जाकर वाली वध द्वारा नीति की नैकितकता को प्रतिष्ठा करी। वाली ने सुग्रीव की पत्नी का अपहरण किये हुए थे। अन्यों के पत्नी अपहरण आरोप का दण्डनीय अपराध से वाली को वध किया श्री राम ने ।

भोग : गुरुदेव ! बीच में बोलने की क्षमा करें। कई मानव तो इस प्रश्न उठाते हैं कि श्री राम तो वाली वध छिपकर ही किया था। यह किस तरह का न्याय होगा?

श्री अगस्त्य : भोग ! इस तरह के सवालों से मानव बुद्धि अद्भुत्ता से काम कर रही है ऐसे मत सोचना। सच्चा कारण जानने से इस तरह के शँकाएं नही उभरेंगे।

कुछ लोग एक वाद इस तरह करते हैं :

श्री दुर्गा देवी, कूहूर शिवालय

वाली ने एक विचित्र वर प्राप्त की थी। उस के अनुसार जो कोई व्यक्ति वाली से अभिमुखि तौर पर लडेगा उन्के आधे भाग का पराक्रम - वाली प्राप्त वर के वरानुसार - वाली को प्राप्त हो जायेगी। फलस्वरूप वाली के विरोधी जो भी हो - भगवान ही क्यों न हो, फिर भी - वे जंग में जीत नहीं सकेंगे।

यह वाद भी पूर्ण नहीं है। कहता हूँ सुन।

बडों तो श्री राम को महा प्रभु कहा करते हैं । वह क्यों, जानते हो? पुनर्वस नक्षत्र में जन्मे लोग अपनी कामों को समझकर किया करते। उस नक्षत्र देवता अतिथि देवी महा शक्ति शालिनी है। न्याय मापती तराजू जैसी वे अन्य गुप्त रूप से की जाती सभी विषयों के प्रकटीकरण करने वाली देवता है।

एक तंत्र है जिसका नाम 'मोहिनी गुप्त जातक तंत्र' जिस से धोकेबाजे व्यक्तियों के अतिथि देवता पूजन के समाप्ति पर विधि पूर्व पान पत्र में देखने से इस धोखेबाज व्यक्ति की छवि उभरेगी। इस तंत्र की अति देवता ही अतिथि देवी। इसी अतिथि देवी जब कारण कर्ता रहती थी उस समय ही श्री राम का अवतार हुआ। इस कारण अन्य लोग गुप्त रूप से करते सभी कामों उन्हें परदा फाश कर दिखेगी।

जब सुग्रीव की पत्नी को अपनाकर वाली श्री राम के बाण से पडे जमीन पर तब वाली ने श्री राम से प्रश्न किया, 'हे राम ! जो कुछ तुम ने किया क्या वह ठीक है?  मै तो वानर समूह का हूँ। हमों में भाई, बहन, माता, पिता जैसे भेदभाव कोई नहीं है। हम वानरों की नीति यही है। मै ने जो किया उसमे तुम ने क्या गलती देखकर मुझे ऐसे दंडित किया?

जवाब में श्री राम ने कहा, 'तुम न्याय शास्त्र को पूर्ण रूप पढे हो। लेकिन क्या वानरें सब पढ सकते हैं? नहीँ ! तुम मनु नीति शास्त्र पढकर न्याय को जानते हो। इस के अलावा तुम वेद भी जानते हो। वेद एवं नीति के ज्ञाता मानवों के समान ही हो। तुम मृग जाती के नहीं। समस्त नीति के निपुण होकर तुम अपने को सादकीय ढंग से वह शास्त्र ज्ञान को उलटा पलटी करते हो।

वेद और नीति दोनों जानकर भी बुद्धी में मानव बल्कि कामों में मृग बनकर भोगने को मृग तथा कार्यों को मानव ऐसी भेदभाव दिखलाते हो। 'वचन में एक, कार्य में दूसरा, इस तरह जीते व्यक्ति को बिना बताने के ही मारनी चाहिये।' उसी कारण से तुम्हें इस ढंग में मारा।

इसे मानकर वाली ने अपने अनुज सुग्रीव एवं अपने पुत्र अंगद को उद्धार करने की प्रार्थना की।

इसलिए, 'श्री राम से अपनाया गया तरीका वाली वघ में कोई गलती नहीं।' कहते हैं सिद्ध पुरुषोँ।

भोग : महादेव ! वाली वध में इतनी रहस्यां?

श्री अगस्त्य : वाली वध के पीछे कई अन्य कारनों भी है, सुनो ।

वाली पूर्व जन्म के प्रकाशिका चंचल सूर्य नामी इंद्र (देवों के राजा) का यह जनमे भूलोक वास। वाली बनकर जन्मे तुरंत ही स्मरण मात्र से मुक्ति दायक स्थल तिरुअण्णामलै क्षेत्र पहुंचकर तपस में लगे। किसलिए? अपनी तपो बल को अधिक कर उस पुण्य शक्ति द्वारा अनेक करोडोँ साल राज भोग भुगतने को।

अरुणाचल गिरि परिक्रमा करके शिवजी का वर पाया। वह अपूर्व वर क्या?

अपनी मुक्ति सिर्फ देवामृत वीर्य से जन्मे, उत्तम महा पुरुष के हाथों से ही - न किसी साधारण जन्मी व्यक्ति से - होनी चाहिए, ऐसा वर शिवजी से पा चुके थे।
इसी तरह से याग से प्राप्त देवलोक खीर पान से उत्पन्न हुए श्रीराम के हाथों से मुक्ति प्राप्त हुई। इस के अलावा वह रामबाण जिससे वाली वध किया गया साधारण अस्त्र नहीं था।
एक पत्नी व्रत, पिता का आदेश पूर्ण रूप से स्वीकार करना, अपने प्रजा लोग के लिए अपने जीवन त्याग करने को सदैव तैयार रहना, इन तीन अपूर्व गुणोँ सहित मानव ही एक आबनूस वृक्ष को छेद करने सकेगा। ऐसे तो सात आबनूस वृक्षों को छेद करने सके राम वाण सामान्य बाण नहीं होगा। उसे केवल स्पर्श करने को ही एक करोड अस्त्र पूजन की जरूरत थी। इस से ही श्री राम वाली वध किया।

सचमुच वाली वध कहना ही गलत होगा। वाली को उपनी ही चाहत के अनुसार मुक्ति प्रदान की गयी ऐसा ही कहना उचित सत्य भी।

रावण जिसने दूसरों की पत्नी का अपहरण का अपराधी था, उन्हें भी दुष्टनिग्रह तौर से दंडित किया।

इस तरह श्री राम महाप्रभु की महिमा कहते ही जा सकते है। साक्षात शिवजी का अत्यंत प्रीति देती नाम तो,

श्री राम राम रामेति रमे रामे मनारमे ।
सहस्र नाम तत्तुल्यम राम नाम वरानने ।।

भोग ! तुम तो जानते हो कि अंबिका के प्रश्न उत्तर के रूप में परमेश्वर श्री विष्णु सहस्र नाम में दी गयी मंत्र यह ही।

हमारे चौपाई के चारों पदों के सार तो श्री राम नाम एवं रूप एक ही है।
श्री शिवजी के 64 लीलाओं आप अच्छी तरह जानते हैं। उन लीले के एक में देवी पार्वती मछवे राजा की पुत्री के रूप में अवतरित हई। एक दिन एक बडी शार्क मछली जो समुद्र में जी रही उस समुद्र में मछली पकडने के लिए आए मछवों को पकडकर खाने लगी। मछ्ली बहूत बडी होने के कारण उसे कोई भी पकड नही सका । तब मछवों का राजा यह शर्त रखा कि जो कोई उस मछली को पकडेगा उसे अपनी पुत्री के साथ विवाह करवाएगा। भगवान शिवजी मछवे के रूप में आकर उस मछली को झाल से फंसा लिया, फिर उनका विवाह मछवा राजा की कन्या अंबिका के साथ हुआ। क्या आप जानते हैं उस मछली का असली रूप या उसे पकडने के लिए शिवजी प्रयुक्त किए झाल ? साक्षात विश्णु भगवान मछली के रूप में आये थे और अत्यंत राम भक्त गुह झाल के रूप में आया। क्यों कि नारायण भगवान को भक्ति या प्रेम के अलावा काई अन्य उपकरण से पकड न सकेंगे। रामायण में हमने देखा कि लक्षणए भरत, हनुमान, विभीषण और कई राम भक्त थे। लेकिन इन सभी भक्तों को छाडकर शिवजी गुह को अपने लीले के लिए चुन लिया। इस का क्या विशेष कारण है? तिरुच्चिरापल्ली श्रीरंगम से लगभग 25 कि.मी. दूर पर कोल्लिडम यानि उत्तर काविरी नदी के किनारे में कूहूर नाम का एक गांव में श्री गुहेश्वर शिव मंदिर है। पूर्व जन्म में गुह उस शिवलिंग मूर्ती को चंदन का लेपन से पूजा किया करते थे। काविरि के पवित्र पानी से चंदन लकडी को घिस घिस कर कई वर्शों तक शिवजी का आराधना करते रहते थे गुह। उस पुजा से प्रसन्न होकर शिवजी एक अपूर्व वर गुह को प्रदान किया। राम तारक मंत्र का उपदेश शिवजी ने गुह को देकर उसको विष्णु भक्तों की उन्नत श्रेणी में मिला दिया। शिवजी ही राम का उत्तम भक्त है। वे सदा श्री राम तारक मंत्र को जप करते रहते है और राम ध्यान में ही लग्न हाते रहते हैं। इसी कारण से गुह के अद्भुत पूजा उन्को बहूत आनंद दिया था। जो भक्त श्री गुहेश्वर का उपरयुक्त चंदन लेपन पूजा करे, वे श्री राम का उत्तम भक्त जरूर बनाएगा।

श्री गुरवे शरणम

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